another poem on holi
a tribute to one of my friends whom i accompanied on the trip.
होली बनाम मस्का
बतायें किस तरह इस बार होली का त्यौहार मनाया
रंग लगा पाये न किसी को बस मस्का ही लगाया
उठाई कार जा पहुंचे चीफ़ सैक्ट्री के घर
लगाया उन्हें गुलाल आये जब वह निकल कर
फिर बैठ कर कुर्सी पर उस फाईल का बताने लगे
हो सकी न पूरी जो बात दफतर में वही सुनाने लगे
निकले जो वहां से तो यह ख्याल आया
पुराने सी एस को कैसे जाये गा भुलाया
बात उन से दफतर की कर न पाये तो क्या करें
इसी लिये पंजाब समस्या पर उन के विचार सुने
बात सी आर की थी, कह न पाये कुछ खुल कर
जवाब मन में ही रहने दिया उन की बात सुन कर
निकले उधर से तो सोचा कि अब किधर जायें
वर्तमान और भूत से तो अब हो गया न्याय
भावी के द्वार पर ही क्यों न दी जाये दस्तक
उनके हज़ूर में भी क्यो न झुके अपना मस्तक
सो उन्हें भी जा कर गुलाल हम लगा आये
शायद इसी से रंग उन पर हमारा जम जाये
सब तरफ होकर आ गये फिर घर के अन्दर
तीनों काल जीत लिये बन गये हम सिकन्दर
होली का यह दिन इस साल तो बहुत रहा प्यारा
कक्कू कवि ने भूत, वर्तमान, भविष्य को सुधारा
コメント