top of page

साहित्य प्रेमी पत्नि

  • kewal sethi
  • Mar 18, 2024
  • 3 min read

साहित्य प्रेमी पत्नि


मेरा दृढ़ विश्वास है कि ऐसी पत्नि जन्मों जन्मों तक किये गये तप के पश्चात ही मिलती है।


या यॅूं भी कह सकते हैं कि काफी संगीन किस्म के पाप किये हों तो ही ऐसी पत्नि मिलती है।


असल में बात यह है कि बचपन से ही मुझे तुकबन्दी की बीमारी हो गई थी। जहॉं मौका मिला, चार वाक्य सोचे और लिख डाले जैसे

बकरी चढ़ी थी जब पहाड़ पर

फिर क्या? घास खाई, गई उतर

कुछ बड़ा हुआ और हमारा कद कुछ बढ़ा तो कविता ज़रा लम्बी हो गई

उदाहरण

आज पानी था बहुत ठण्डा

पर हम तो नहाते चले गये

मॉं ने डॉटा था बुरी तरह मुझे

चार दिन बीते तुझे नहाये हुये

हाल हमारे का मॉं को क्या पता

हर पानी की बूॅंद लगती थी सज़ा

पर मजबूरी थी उस दिन हमारा नहाना

पता था बिना नहाये मिले गा नहीं खाना


यह नहीं कि इस बीमारी के इलाज के लिये मॉं बाप ने कुछ नहीं किया। पर बेसूद। बीमारी बढ़ती गई जूॅं जूॅं दवा की।

और फिर हमारी शादी हो गई।


पत्नि को पहले ही दिन हम ने अपनी कविता सुनानी शुरू की, बस यहीं से हमारा दुर्भाग्य आरम्भ हो गया। कुछ दिन तो उन्हों ने हमारी कविताओं के बारे में कुछ नहीं कहा। न अच्छा न बुरा। कहा तो बस इतना कि अभी तो नींद आ रही है, बाकी कल।

इसी कल कल के चक्कर में कलकल हो गई।


कहते हैं कि कविता की बीमारी छूत की बीमारी है। एक से दूसरे को लग ही जाती है। सो हमारे साथ रहते रहते यह बीमारी हमार पत्नि को भी लग गई।

एक दिन जब हम अपनी तीसरी कविता सुना रहे थे तो वह बोलीं

भूखे ही सोना है या खाना बनाऊॅं

या फिर होटल से खाना मंगवाऊॅं

उस दिन वाकई ही खाना होटल से आया। आखिर कवि भूखे कैसे सोता। डेढ़ सौ की चपत लग गई।


दूसरे दिन तो हम अपनी जेब ढीली होने का मातम मनते रहे। पर तीसरे दिन आदत से मजबूर फिर कविता शुरू कर दी। दूसरी सुनाते सुनाते बटुवे की याद आ गई और हम रुक गये।

पर पत्नि ने कहा -

नहीं, नहीं, सुनाते रहिये, आज तो आराम है

मुझे रसोई में तो जाना नहीं, न कोई काम है

मैं ने पहले ही होटल को दे दिया है आर्डर

आज स्वीट डिश भी मंगाई है मैं ने डियर


हमारी कविता सुनाने का मूड एक कदम आफ हो गया। पर मजबूरी में दो एक सुनानी पड़ीं। उधर होटल ने खाना भेजने में देर कर दी। इधर भूख के मारे परेशान और उधर पत्नि श्री की और कविता सुनाने की मॉंग, दोनों के बीच में हम तो पिस कर रह गये।


अब क्या बतायें। घर जाने में भी डर लगता है। पता नहीं कब, कविता सुनने की फरमाईश हो जाये। शादी से पहले खुदा से दुआ करते थे कि बीवी ऐसी मिले जिसे कविता से उलझन न हो। और अब?

पर बीमारी तो बीमारी है। ऐसे थोड़े ही जाती है। दफतर से आते वक्त रास्ते में पार्क पड़ता है। वहॉं बैठ कर पेड़ पोधों को सुना देता हूॅं। इस से शौक भी पूरा हो जाता है और घर जाने में थोड़ी देर भी हो जाती है।

और आखिर में अर्ज़ किया है -

पार्क में बैठे हैं हम और चारों तरफ सुनसान है।

ऐसे माहौल में कविता सुनाने में बड़ा आराम है।।

न दाद की फरमाईश है न मुकरर का अरमान।

न घर जा कर बीवी के तकाज़ों से हों परेशान।।

दुआ है कि अब तो जिंदगी यूॅंही गुज़र जाये।

न हो कोई सुनने वाला, न किसी को सुनाये।।

अपने मन की बात को हम यूॅंही बताते जाये।

खुद कविता बनायें, खुद को ही सुनाते जायें।।


Recent Posts

See All
ऊॅंचाई

ऊॅंचाई  - लगता है कि अब हमारा साथ रहना मुमकिन नहीं है।  - यह ख्याल अचानक क्यों आ गया -  ख्याल तो बहुत पहले आया था पर कहने की हिम्मत आज ही...

 
 
 
लफ्ज़

लफ्ज़ पता नहीं कैसे, क्यों वह लफ्ज़ अचानक ज़हन में आ गया। एक अर्से से उसे दबा कर रखा गया था और उसे लगभग भुला दिया गया था या यह आभास था कि...

 
 
 
unhappy?

i had an unhappy childhood. my father was an ips officer. we had a big bungalow, with lawns on all the sides. there was a swing in one of...

 
 
 

Kommentarer


bottom of page