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शाका लाका बूम बूम

  • kewal sethi
  • Aug 18, 2024
  • 4 min read

शाका लाका बूम बूम


इस सीरियल में दिनाँक 29 जनवरी को बताया गया कि बच्चों के ताउ जी और ताई जी मिलने के लिये आ गये। उन्हों ने संस्कार की बातें कहना शुरू कीं। एक तो उन का कहना था कि बिना ईश्वर को धन्यवाद दिये खाना नहीं खाना चाहिये। खाने से पहले हााि धोना चाहिये। दूसरे अपने धर्म ग्रन्थ सुनना चाहिये। तीसरे सुबह सुबह मुर्गे की बाँग के साथ उठ कर नहाना चाहिये। यह बातें बच्चों को बहुत बुरी लगती थीं। उन्हों ने एक मुर्गे को उन के सोने के कमरे में रात को दो बजे छोड़ दिया। उस ने घबरा कर बाँग देनी शुरू की तो ताउ व ताई जाग गईं। दूसरे घर वाले भी जाग गये। अब यह ज़ोर दिया गया कि मुर्गे की बाँग के कारण दोनों नहायें। इस में बच्चों की माँ भी शामिल थी क्योंकि सीरियल में देवरानी को परेशान करने की बात भी शामिल थी। ताउ ताई नहाने गये तो बच्चों ने फ्रिज से बरफ़ निकाल कर पानी में डाल दी। ठण्डे पानी में नहाना पड़ा तो उन को ज़ुकाम लग गया।


मैं सोचता रहा कि इस सीरियल का उद्देश्य क्या था। पुराने अंधविश्वास को घ्वस्त करना? पर क्या ईश्वर को धन्यवाद देना, हाथ धो कर खाना खाना, प्रातः जल्दी उठना भी अंधविश्वास के वर्गीकरण में आता है। शायद इस का उद्देश्य बच्चों की शरारतें दिखाना था पर फिर उन की माँ को भी इन में भागीदार क्यों बनाया गया। और फिर इन शरारतों को का इस सीमा तक ले जाना कि वे रोगी हो जायें, कैसे उचित ठहराया जा सकता है।


यह सही है कि हास्य नाटक बनाने के लिये अतिश्योक्ति का सहारा लेना पड़ता है। पर इस की भी सीमायें होती है। उस से आगे यह हास्य नाटक नहीं वरन् त्रासदी बन जाता है। आधी रात को नहाने के लिये कहना और बड़ों का भी इस के लिये ज़ोर देने से लेखक के विचार में भले ही हास्य उत्पन्न हो पर क्या यह वास्तव में हास्य होगा।


मुझे इस से भी थोड़ी कोफत होती है कि इस के माध्यम से यह दर्शाया गया है कि बड़ों का आदर करना आवश्यक नहीं है। उन की बातों पर ध्यान देना आवश्यक नहीं है। खाने से पहले हाथ धोना सम्भवतः इन बच्चों के माता पिता ने सिखाया ही नहीं अतः वह उन को बुरा लगा। ऐसी ही दूसरी बातें हैं। एक बहुत ही ओछे तरीके से संस्कारों को अंधविश्वास ठहराने का यह प्रयास है।


पर क्या लेखक वास्तव में इन उद्देश्यों के ले कर चला था। शायद नहीं। उसे इस बात का ध्यान ही नहीं आया होगा। यह बातें अनजाने में ही जुड़ जाती हैं। हमारी शिक्षा इस प्रकार हुई है कि हम को हर एक पुराना रिवाज पिछड़ापन ही लगता है। हम अपने किसी भी रस्मो रिवाज में कोई अच्छाई नहीं देखना चाहते। प्रातः जल्दी उठना आज कल के फैशन के अनुरूप नहीं है। देर से उठना प्रगति चिन्ह माना जाता है। अंग्रेज़, जो चम्मच काँटे से खाते हैं, के लिये हाथ धोना शायद अनिवार्य न हो पर क्या हमें भी उसी की नकल को प्रगति चिन्ह मान लेना चाहिये।

यह केवल एक सीरियल की बात ही नहीं है। सभी स्थानों पर इस प्रकार की प्रवृति देखने को मिल जाये गी जहाँ अपनी संस्कृति के प्रति विरक्ति भर दी जाती है। हमें हर स्थान पर और हर समय पर बताया जाता है कि हम इस लिये पिछड़े हैं क्योंकि हम अंधविश्वासी हैं। यदि हम शनिवार को लोहा नहीं खरीदते तो यह अंधविश्वास है। यदि हम मंगलवार को बाल नहीं कटवाते तो यह अंधविश्वास है। हम ने कभी इन के कारणों के बारे में सोचा ही नहीं। आजकल यह माना जाता है कि हर बात के लिये शासन को ही पहल करना चाहिये। दुकानों में किस दिन अवकाश रखा जाये यह गुमाश्ता कानून द्वारा तय किया जाये गा। दुकान किस समय बंद की जाये, इस के लिये ज़िलाध्यक्ष धारा 144 के अन्तर्गत आदेश निकालें गे। पर सदैव ऐसा नहीं था। बरादरी स्वयं तय करती थी कि किस प्रकार अनुशासन रखा जाये गा। बरादरी ने तय कर लिया कि मंगलवार को नाईयों का अवकाश रहे गा। कालान्तर में इसे व्यापक मान्यता मिल गई और मंगलवार को बाल कटवाना सही नहीं माना गया। हम ने इसे अंधविश्वास कह दिया। क्योंकि हम प्रगतिवादी तभी ठहराये जाये गे जब हम पुरानी बातों को तिलाँजलि दें गे। इस के लिये हम कुछ भी क्रने को तैयार हैं।


उसी कड़ी में इस प्रकार का प्रचार भी आता है कि भारतवासी वैदिक काल में गउ माँस का सेवन करते थे। हो सकता है पर क्या इस कारण इसे अब शुरू कर दिया जाना चाहिये। एक मान्यता प्राप्त धार्मिक विश्वास को चुनौती देने की आवश्यकता क्यों है। क्या गउ माँस सेवन से हम प्रगतिवादी बन जाये गे या फिर लौट कर वैदिक काल में चले जायें गे। प्रगतिवादी इस बात को भी तय कर लें। और फिर यदि भूत काल में जाना ही है तो फिर वैदिक काल तक ही क्यों रुका जाये। इस बात को सभी मानें गे कि आग के नियन्त्रण से पूर्व मनुष्य कच्चा माँस भी खाता था। क्या प्रगतिवादी चाहें गे कि हम कच्चे माँस का सेवन आरम्भ कर दें।


पर सम्भवतः निन्दा करना ही प्रगतिवाद है। अपने रिवाजों को पिछड़ापन निरूपित करना ही प्रगति है। मैकाले का कहना था कि वह ऐसे भारतीय तैयार करे गा जो केवल शरीर से भारतीय हों गे। उस का सपना साकार हो चुका है, ऐसा प्रतीत होता है।

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