व्याख्या
कुछ गूढ़ ज्ञान ऐसा होता है जो सब के साथ बाँटा नहीं जा सकता है। इसे कोड में - गुप्त भाषा में - लिखा जाता है। आम व्यक्ति उस बात का समझ नहीं पाता किन्तु जिन को कोड का ज्ञान है अथवा जिसे कोड की कुंजी दी गई है, वह उस सन्देश का आसानी से पढ़ सकता है। कई विद्वानों का मत है कि वेद भी इसी प्रकार के ग्रन्थ हैं। इस कारण उन्हें समझना आसान नहीं है। आम व्यक्ति के लिये उस का एक अर्थ है और अध्यातम के विद्यार्थी के लिये अन्य। यही कारण है कि पाश्चात्य जगत के विद्वान, जिन को पृष्ठभूमि का ज्ञान नहीं था, की व्याख्या अलग प्रकार की है परन्तु यह आज का विषय नहीं है।
यह आम धारणा है कि वेद में जो मन्त्र आते हैं, उन का अर्थ करना सरल नहीं होता है क्योंकि वह सार्वजनिक प्रयोग के लिये नहीं हैं वरन् सक्षम शिष्यों को गुरू द्वारा सिखलाये जाना है। इसी कारण एक ही मन्त्र की व्याख्या अपने सामर्थ्य अनुसार विद्वानों द्वारा की गई है। यह भी स्पष्ट है कि संस्कृत में एक ही शब्द के कई अर्थ होते हैं। यह बात हिन्दी में भी देखी जा सकती है जैसे कोटि का अर्थ करोड़ भी है तथा वर्ग भी जैसे बच्चन उच्च कोटि के कवि थे। इसी भ्रॉंति में हिन्दुओं के 33 करेाड़ देवता हो गये जबकि वास्तव में 33 प्रकार के देवता हैं।
उपनिषदों में भाषा थोड़ी स्पष्ट है क्योंकि यह पाणिनी के नियमों का पालन करती है। फिर भी मन्त्रों को समझने के लिये उस का संदर्भ देखना अनिवार्य होता है।
उदाहरण के तौर पर श्वेताश्वतरोपनिषदृ के प्रथम अध्याय का पांचवां मन्त्र है -
पञ्चस्रोतोऽम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां पञ्चयादिप्राणोर्मि पञ्चमूलाम।
पञ्चवर्तां पञ्चदुःखौघवेगा पञ्चशभ्देदां पञ्चपर्वामधीमः।।
इस का शाब्दिक अर्थ है
पॉंच स्रोतों से आने वाली, पॉंच स्थानों से उत्पन्न हो कर उग्र तथा वक्र गति से पॉंच प्राण वाली तरंगों, पॉंच भँवरों, पॉंच दुखरूप प्रवाह, पॉंच पर्वों, पचास भेदों वाली नदी, पॉंच प्रकार के ज्ञान से युक्त है।
परन्तु जब तक इस की संदर्भ सहित व्याख्या न की जाये तब तक इसे समझना कठिन है। आखिर यह पाॅंच जल कौन से हैं। इन के स्रोत क्या हैं। यह सब बातें उस शिष्य को ज्ञात हों गी जो पूर्व में ही इस ओर ज्ञान प्राप्त कर रहा है। अन्यथा यह गुरू के द्वारा बताई जायें गी। आईये, इस की व्याख्या का प्रयास करें।
इस मन्त्र में संसार का नदी के रूप में वर्णन किया गया है। (इस से पूर्व मन्त्र में संसार का पहिये के रूप में वर्णन किया गया है)
प्रथमतः पॉंच जल की बात की गई है। कौन से जल का संदर्भ है यहाॅं। यह तो स्पष्ट है कि यह मन्त्र मनुष्य मात्र से सम्बन्धित है। अतः इस का तात्पर्य हमारी पॉंच ज्ञान इन्द्रियॉं से हैं जिन के माध्यम से संसार का ज्ञान हमें प्राप्त होता है। इन्हीं के कारण जीवन की इस नदी का प्रवाह चलता है।
यह इन्द्रियॉं पॉंच तन्मात्राओं से उत्पन्न हुई हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि का आरम्भ प्रकृति से हुआ। प्रकृति का प्रथम विकासज महत् था। इस के पश्चात अहंकार आया। तन्मात्रा वह परिष्कृृत शक्तियॉं हैं जो अहंकार से उत्पन्न होती हैं यथा शब्द, स्पर्श, गंध, रूप, एवं रसं। इन सूक्षम शक्तियों से ही इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है अतः वह ही इन्द्रियों के उदगम स्थान कहे गये हैं।
इन्द्रियों के वश में न होने से बार बार जन्म मृत्यु के चक्र से गुजरना पड़ता है। इन्द्रियों को वश में रखना कठिन है। उन का नियन्त्रण मन द्वारा किया जाता है किन्तु मन स्वयं भी चंचल है। श्री गीता के अध्याय 6 में अर्जुन का कथन है ‘‘मन बड़ा चंचल है और प्रमयन स्वभाव वाला है तथा बड़ा दृढ़ एवं बलवान है। इस लिये उस का वश में करना वायु को वश करने की भाँति दुष्कर है’’। इसी कारण इन के प्रवाह को वेगवान तथा भयंकर कहा गया है। संसार का मार्ग टेढ़ा है और इस से बचना कठिन कार्य है। इस लिये इस प्रवाह को वक्र कहा गया है।
पॉंच प्राणों की बात तो स्पष्ट है। प्राण, अपान, उदान, व्यान तथा समान पॉंच प्राण कहे जाते हैं। जगत में जो भी चेष्टा, जो भी हलचल होती है, वह इन प्राणों के कारण ही होती है। इस कारण इन्हें तरंगें कहा गया है।
पॉंच भँवरों की बात इन्द्रियों के वश में न होने के बारे में है। इन्द्रियॉं चंचल होती है एवं मनुष्य को सही मार्ग से भटकाने में उन का योगदान रहता है। इन्हीं में फंस कर मनुष्य अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। इस कारण ही उसे पाॅंच प्रकार के दुखों का सामना करना पड़ता है। यह दुख है गर्भ का दुख; जन्म का दुख; बुढ़ापे का दुख; रोग का दुख; तथा मृत्यु का दुख। इन सब का मुख्य कारण अज्ञान, अहंकार, राग, द्वेष, मृत्युभय है तथा यह वे पॉंच पर्व हैं जिन के बारे में कहा गया है तथा जिन के कारण मनुष्य को कई कई योनियों में से गुजरना पड़ता है।
इस बात को स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक मनुष्य का मन को तथा इन्द्रियों को नियंत्रित करने का अपना अपना प्रयास रहता है। जीवन चक्र अपना स्वरूप बदलता रहता है तथा कई प्रकार की स्थितियाँ उत्पन्न करता है। हर व्यक्ति का अपना अनुभव रहता है अतः इसे पचास भेदों की बात कह कर समझाया गया है।
अब रही बात पाॅंच प्रकार के ज्ञान की। इन में से पहला तो है इन्द्रिय जनित ज्ञान जिसे मति ज्ञान भी जैन मत के अनुसार कहा जाता है। इस ज्ञान को मन द्वारा ग्रहण किया जाता है। दूसरा ज्ञान है श्रुत ज्ञान। जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह श्रवण द्वारा प्राप्त किया जाता है। वैसे तो मति ज्ञान भी श्रवण द्वारा प्राप्त हो सकता है किन्तु श्रुत ज्ञान में पूर्व तथा भविष्य का ज्ञान भी शामिल रहता है जो इस की मति ज्ञान से भिन्नता दर्शाता है। तीसरा ज्ञान है अवधि ज्ञान। इस में इन्द्रियों का योगदान नहीं रहता वरनृ यह भीतर से ही उत्पन्न होता है। चौथा ज्ञान है मनःपर्याय ज्ञान। इस में अन्य व्यक्ति के विचारों का पता चलता है। यह केवल एक साधक को ही प्राप्त हो सकता है, सामान्य मनुष्य को नहीं। परन्तु इस में काल एवं स्थान का प्रतिबन्ध रहता है। पाँचवाँ ज्ञान है कैवल्य ज्ञान। यह केवल सिद्ध मनुष्य को ही प्राप्त होता है। इस में काल तथा स्थान का प्रतिबन्ध नहीं रहता है। यह पूर्णतया अध्यात्मिक ज्ञान है।
आम तौर पर जो शिष्य गुरू के पास आते थे, उन्हें पूर्व में प्राप्त शिक्षा के कारण इन बातों का ज्ञान रहता था अतः मन्त्र में केवल इन का संकेत भर दिया गया। परन्तु आम जन के लिये इस की व्याख्या करना आवश्यक हो जाता है। इस हेतु कुछ प्रयास किया गया है।
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