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बौद्ध मत

बौद्ध मत

 

बौद्ध मत का जन्म भारत में हुआ परन्तु यह चीन होते हुये कोरिया तथा जापान तक फैल गया। दूसरी ओर श्री लंका के रास्ते यह पूरे दक्षिणपूर्व एशिया में फैला।

बौद्ध मत का आरम्भ सिद्धार्थ द्वारा हुआ जब उन्हों ने मध्यम मार्ग को ही निर्वाण कर मार्ग बताया। राजवंष में जन्म लेने के पष्चात उन्हों ने संसार के दुखों को देखा तथा इन से मु७ होने के लिये प्रयास किया। कठोर तप से लाभ नहीं हुआ तब उन में जागृति का अनुभव हुआ कि निर्वाण के लिये मध्यम मार्ग ही उपयुक्त है। उन्हों ने अपना प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया।

उन्हों ने चार सत्य का प्रचार किया। यह थे

1.            संसार दुखों का घर है।

2.            इन दुखों का कारण है।

3.            इन दुखों का अन्त किया जाना है।

4.            दुखों को अन्त करने का मार्ग है।

इस मध्य मार्ग में आठ बातें थीं - 1. सम्यक दृष्टि; 2. सम्यक संकल्प; 3. सम्यक वाक; 4. सम्यक कर्म; 5. सम्यक आजीव; 6. सम्यक व्यायाम; 7. सम्यक स्मृति; 8. सम्यक समाधी।

स्वयं महात्मा बुद्ध ने किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की। उन्हों ने केवल अपने शिष्यों से वार्तालाप किया। उन के शिष्यों ने उन के विचार कलमबन्द किये। महात्मा बुद्ध की मृत्यु के लगभग सौ साल बाद एक सम्मेलन राजगृह में हुआ जिस में उन के विचारों को एकत्रित किया गया। दूसरा महासम्मेलन वैशाली में हुआ जिस में संध से सम्बन्धित प्रक्रिया पर विचार किया गया। इसी समय दो समूहों - स्थाविर तथा महासंघीका - में धर्म बट गया। बाद में कई सम्प्रदाय बने किन्तु प्रमुख रूप से दो की बात करें गे जिन का प्रमुख रूप से विस्तार हुआ। यह हैं - थेरावाद (जिसे विरोधियों ने हीनयान कहा) तथा महायान। तिब्बत में एक और समूह, जिसे तान्त्रिक कहा जाता है, का प्रचलन हुआ। इसे मन्त्रायान अथवा वज्रयान भी कहा जाता है। 

थेरावाद को आश्रय मिला सम्राट अशोक का जिन के पुत्र तथा पुत्री ने श्री लंका में इस का प्रचार किया तथा वहाँ से यह दक्षिण पूर्व एशिया में विस्तारित हुआ। महायान सिल्क मार्ग के माध्यम से उूसरी शताब्दी में चीन में पहुँचा और वहाँ से कोरिया एवं जापान में। तिब्बत में एक और समुदाय बौद्ध मत के तान्त्रिक रूप का सातवीं शताब्दि में विस्तार हुआ। कालान्तर में बौद्धमत अपने आरम्भ के देश भारत में कमज़ोर पड़ गया। थेरावाद तथा महायान दोनों सम्प्रदायों में अनेक ग्रन्थों की रचना की गई। प्रारम्भ में यह पाली भाषा में थे किन्तु बाद में संस्कृत में लिखे गये। इन का अनुवाद चीनी तथा तिब्बती भाषाओं में हुआ। मुस्लिम आक्रमण के समय भाारत में काफी अधिक संख्या में बौद्ध ग्रन्थ जला दिये गये तथा कई गन्थ केवल तिब्बती भाषा में ही उपलब्ध रहे अथवा चीनी भाषा में।

बद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात उन का दाह कर्म किया गया तथा राख को विभिन्न स्थानों पर स्तूपों में रखा गया। इन स्तूपों में उन की पूजा की जाती है यद्यपि बाद में उन की मूर्ति भी बनने लगी।

 

थैरावाद

थेरावाद का मत है कि महात्मा बुद्ध अवतार न हो कर मनुष्य ही थे। बुद्ध की प्रतिमा बनाने में वह इसे केवल एक पुनीत कार्य मानते है, भ७ि अथवा पूजा नहीं। श्री लंका तथा दक्षिणपूर्व एशिया में थैरावाद मत का प्रचलन अधिक है यद्यपि अलग अलग देशों में रूप में थोड़ा अन्तर है।

बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद बौद्ध मत में 18 सम्प्रदाय बन गये जो बुद्ध के उपदेश का अपना अपना अर्थ लगाते थे। इन में थेरावाद ही अभी तक सक्रिय है। थैरावाद में निर्वाण की कल्पना व्यक्ति विशेष के संदर्भ में ही की गई है।

 

महायान

दूसरा प्रसिद्ध सम्प्रदाय महायान था। थेरावाद के विपरीत महायान में दूसरों के निर्वाण के लिये मार्गदर्शन करना भी षामिल है। महायान शाखा ने अन्य शाखाओं से अलग दृष्टि कोण अपनाते हुये बुद्ध के अनेक अवतारों की बात कही है जिस में वह समय समय पर निर्वाण का मार्ग सुझाने के लिये आते रहे। इन जन्मों में उन्हें बोधिस्तव कहा जाता हैे।

महायान में जिन अवतारों की बात की गई है उन में एक अवलोकनेश्वर है। वह मनुष्य के कल्याण के लिये देखते है। उन का मन्त्र है ओम मणि पदमे हुम। ओम तथा हुम का अनवुाद नहीं किया जा सकता। ओम षब्द से ही सृष्टि की रचना हुई है। भारत में अवलोकनेश्वर के साथ देवी तारा का नाम भी लिया जाता है। चीन में उस का नाम गुवानयिन है। तिब्बत में अवलोंकश्वर का नाम चैनरिज़िग है तथा वह दलाई लामा के रूप में प्रकट होते है। दूसरा अवतार मैत्रेय नाम से है। वह लोगों का खतरों में रक्षा करते हैं। चीन में उन का नाम मिले फ़ो है। वह भविष्य में भी मनुष्य जाति को बचायें गे। अन्य अवतार है मंजुश्री तथा क्षितिगर्भ।

सब से प्रसिद्ध हैं अमिताभ जिन्हों ने स्वर्ग की रचना की है। जो व्यक्ति मृत्यु के समय उन का नाम लेता है, वह उन के स्वर्ग में स्थान पाता है। चीन में उसे अमित्वों फो तथा जापान में अमिदा बात्सु कहा जाता है। कामाकुरा काल (1185-1333) में जापान में उन की पूजा अग्रगण्य मानी गई। होनेन (1133-1212) ने आम नागरिकों के लिये भी अमिदा की पूजा की अनुमति दिला दी। एक अन्य सन्त शिनरान का मत था कि निर्वाण केवल अमिदा की कृपा से ही हो सकता है।

अन्य दिव्य बुद्ध हैं - भाईशज्यागुरू (स्वास्थ्य रक्षक), वैरोचन (सूर्य) जो तान्त्रिक बौद्धमत में मण्डल में केन्द्रीय स्थान ग्रहण करते हैं। मण्डल ध्यान लगाने तथा ब्रह्माण्ड के बारे में जानने के साधन हैं। तिब्बत के तान्त्रिक तथा जापान के शिनगोन सम्प्रदाय में पाँचों बुद्ध को स्थान दिया जाता है। वैरोचन बीच में रहते हैं, अमिताभ पश्चिम में, अमोघसिद्धी उत्तर में, अक्षोभय पूर्व में, तथा रत्नसम्भव दक्षिण में रहते हैं। मण्डल का विस्तार पाँच रंगों, पाँच व्यक्तिपरण, पाँच बुद्धि, इत्यादि से किया जाता है। साथ ही पाँच देवियों को भी केन्द्र तथा चार बीच की दिशाओं में स्थापित किया जाता है।

वैरोचन की जापान में अमेरेतेसु के रूप में भी पहचान की जाती है।

इस के अतिरिक्त और भी कई स्थानीय देवता माने जाते हैं जैसे कि नाग देवता बुद्ध की तथा कोष की रक्षा करते हैं। स्तूपों को यक्ष के साथ जोड़ा  जाता है। यक्ष धन तथा भाग्य के देवता है जबकि यक्षी प्रजनन की देवी है। इन्द्र और विष्णु रक्षा करने वाले हैं। इस के अतिरक्त और भी स्थानीय देवता हैं।

महायान में स्वर्ग की कल्पना भी है जिसे पूर्ण प्रसन्नता का देश बताया गया है तथा जहाँ न मन में, न शरीर में कोई कष्ट होता है। जो कोई पूरे ध्यान से अमिताभ का ध्यान करता है, वह मृत्यु के पश्चात इस स्वर्ग को प्राप्त होता है।

 

पवित्र साहित्य

बुद्ध के बारे में कई ग्रन्थों  की रचना की गई। दुर्भाग्य से केवल थेरावाद का पाली में लिखा गया ग्रन्थ ही उपलब्ध है। भारत में महायान का साहित्य प्रज्ञपत होता है किन्तु चीन तथा तिब्बत के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। यह ग्रन्थ अलग अलग सम्प्रदायों के अलग अलग हैं। सब से महत्वपूर्ण पुस्तक थैरावाद की तिपितका है। पाली में लिखी गई यह पुस्तक बुद्ध के आरम्भिक काल के उपदेश बताती है। इस का अधिकृत लेख का श्रेय श्री लंका के राजा वत्तगमानी को दिया जाता है। यह पुस्तक तीन भागों में है। सुत्ता (सूत्र) पितिका; विनय पितिका; अभिधम्मा (अभिधर्म) पितिका। सूत्र पितिका में बुद्ध के उपदेश तथा तत्सम्बन्धी कई कवितायें एवं लेख हैं। विनय पितिका में भिक्षुओं के लिये नियम हैं तथा तत्सम्बन्धी कथायें हैं। अभिधर्म पितिका में बुद्ध के विचारों का संषलेशन है।

त्रिपितिका की विस्तृत व्याख्या बुद्धघोष द्वारा की गई है जो पाँचवीं शताब्दि में हुये थे। उन की मुख्य पुस्तक विषुद्धिमग्गा है। यह थैरावाद से सम्बन्धित है। महायान से सम्बन्धित पुस्तकें प्रथम शताब्दि में लिखी गई थी तथा दूसरी शताब्दि में इन का अनुवाद चीनी भाषा में किया गया था। चीनी भाषा में सब से प्राचीन साहित्य 543 ईसवी का है। पहला प्रकाशित ग्रन्थ 972-83 ईसवी का है जिस में संस्कृत की त्रिपिट्टिका का अनुवाद है। तिब्बत में नियमों का संकलन विद्वान बुटोन (1290-1364) द्वारा किया गया था। इस का प्रकाशन पंद्रहवीं शताब्दि में बीजिंग में हुआ। इस साहित्य में सूत्र (तिब्बति भाषा में का) दिये गये जो बुद्ध तथा बौद्धिसत्व से सम्बन्धित हैं। इस का विस्तार इतना हुआ कि एक लाख तक वाक्य हो गये। इन्हें दो भागों में बाँटा गया - हीरक तथा हृदय जो मौलिक सूत्र हैं। इन की व्याख्या विस्तार में की गई जिसे शास्त्र (तिब्बती भाषा में तेन) कहा गया। इस में तान्त्रिक अंश का बहुल्य है। तान्त्रिक को चार भागों में बाँटा जाता है - क्रिया; चर्या; योग; तथा अनुत्तर योग।

महाविरोचन तान्त्रिक का चीन तथा जापान में विषेष महत्व है जो शून्य के यर्थाथ के बारे में हैं। पूर्वी एशिया में कमल सूत्र महायान सम्प्रदाय का विशेष ग्रन्थ है जिस का विष्लेषण व्यापक स्तर पर किया गया है। महायान तथा अन्य अठारह सम्प्रदायों में वाद विवाद रहा है। उन का कहना है कि महायान बुद्ध के आदेश से हट कर है। महायान का कहना है कि इन सम्प्रदायों में तो केवल तैयारी है। महायान के भीतर एक उप सम्प्रदाय माध्यमिक का कहना है कि महायान के कुछ नियम तो नितार्थ (नित अर्थ) हैं तथा अन्य व्याख्या (नय अर्थ) हैं। तान्त्रिकों का कहना है कि उन के सूत्र आम जनता के लिये नहीं हैं तथा इन्हें विद्वान व्यक्ति ही पात्र व्यक्ति को बता सकता है। वज्रयान ने अपने ही सूत्र पेश किये हैं।

 

पवित्र व्यक्ति

बौद्ध धम्र में कई व्यक्ति हुये हैं जिन्हों ने धर्म के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बुद्ध के प्रथम शिष्यों में सारीपुत्र थे जो प्रथम अर्हन्त बने तथा निर्वाण प्राप्त किया। एक और शिष्य मोदागलयायान थे जिन्हें असाधारण शिद्धियाँ प्राप्त हुईं। एक प्रसिद्ध शिष्य अंगुलीमाल थे जो पूर्व में लुटेरे थे किन्तु बुद्ध के सम्पर्क में आने पर बौद्ध बने। भारत में अनेक विहार थे जिन में बौद्ध भिक्षु वास करते थे एवं भिक्षा पर ही जीवन बिताते थे। इन में शॉंतारिक्षत तथा कमलशिला के नाम विशेष रूप से आते हैं जिन्हों ने बौद्ध धर्म पर साहित्य का निर्माण किया।

चीन के भिक्षु याुवानशॉंग ने सातवीं शताब्दि में भारत के विहारों में शिक्षा ग्रहण की। उस ने कई भिक्षुओं के बारे में विवरण दिया जो राजदरबार से सम्मानित थे। इस काल में शॉंतरिक्ष्ता तथा कमलाशिला विशेष रूप से वर्णन योग्य है। उन्हों ने बौद्ध मत के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता की थी। आतिष नाम के भिक्षु ने तिब्बत में बौद्ध मत की दूसरी लहर का श्रेय प्राप्त किया।

श्री लंका के बुद्धगोश का पूर्व में ज़िकर किया गया है। चीन में हुईंनेंग (638-713) ने दक्षिण चीन में चन (ध्यान) सम्प्रदाय की स्थापना की। यह पूरे चीन में प्रसिद्ध हुआ। जापान में ज़ैन के पूर्ववर्ती प्रणेता भी वही थे।

जापान के भिक्षु कुकयी (अन्य नाम कोबबो दायशी - 774-883) चीन से तान्त्रिक बौद्धमत का विचार लाये जिसे जापान में शिनगोन (पवित्रश शब्द) कहा गया। कुकयी ने चीनी चित्र आधारित लिपि के स्थान पर घ्वनि आधारित लिपि का प्रयोग किया। कामाकुरा काल में भिक्षु दोगेन (1200-1253) ने भी चीन से ध्यान का नया विचार लाये जिसे जैन का सोटो रूप कहते हैं। चौदहवीं शताब्दि में तिब्बत में भिक्षु तोंग खा पा ने दलाई लामा पदनाम की स्थापना की। वर्तमान में चौदहवें दलाई लामा तेनसिेह ग्यात्सों हैं। यह उल्लेखनीय है कि तिब्बत में धार्मिक तथा प्रशासनिक पदों की एकता की गई है।

तान्त्रिक परम्परा में गृहस्थ में रहने वाले तथा  एकान्त में रहने वाले दोनों प्रकार के सिद्ध है। इन में से एक प्रसिद्ध नाम पदमसम्भ्व का है जिन्हों ने पहले तिब्बती विहार की स्थापना की। उन की जीवन संगिणी येषे तोग्याल अपनी तौर पर शक्तिमान थीं। मिलारेप ने बहुत समय तक गुरू मारपा के साथ काम किया और अन्त में उन्हें अपने में सिद्ध मान लिया गया। महायान में तेरहवीं शताब्दी से ही बोधिस्तव की कल्पना की गई है जो समय समय पर जनता के उद्धार के लिये आते रहे हैं। इन में राजकुमार शोतोकु भी हैं जिन्हों ने जापान में बौद्ध मत का आरम्भ किया।

आरम्भ में स्त्रियों को भी भिक्षुणि बनने का अधिकार था जिस में बुद्ध ने अपनी मौसी का दीक्षा दी थी। कई विहारों में स्त्रियाँ भी रह सकती थीं। पर यह परम्परा कमज़ोर पड़ती गई। पर अभी भी तिब्बत तथा चीन में इसे फिर से आरम्भ करने के प्रयास हो रहे हैं। कामाकुरा काल में जापान में भिक्षुओं को शादी करने की अनुमति दी गई तथा यह परम्परा चली आ रही है। जोडो शिशू तथा सोका कोकई, ऋस्सो कुसई कई सम्प्रदायों में भी यही व्यवस्था है। दूसरी ओर निचीरेन (1222 - 81) जैसे भिक्षु एवं प्रचारक पुरानी परम्परा पर लौटने का आव्हान करते रहे हैं।

 

नैतिक सिद्धाँत

महात्मा बुद्ध ने मध्यम मार्ग की बात की जिस के लिय आठ बातों पर ज़ोर दिया। यह हैं - 1. सम्यक दृष्टि; 2. सम्यक संकल्प; 3. सम्यक वाक; 4. सम्यक कर्म; 5. सम्यक आजीव; 6. सम्यक व्यायाम; 7. सम्यक स्मृति; 8. सम्यक समाधी।

महायान सम्प्रदाय में करुणा तथा प्रज्ञा पर ज़ोर दिया गया जिस को उन की शपथ में भी शामिल किया है। यह है - मैं सब मनुष्यों के कल्याण के लिये बुद्धत्व को प्राप्त करूूं’’। करुणा के आधार से ही वह सभी के निर्वाण की बात कर सकते हैं। प्रज्ञा का अर्थ विश्व को भ्रामक विचार से परे देखने की बात है।

इन के आधार में कर्म की भूमिका है। बुरे कर्मों से बचना हो गा ताकि अगले जन्म में दुख न भुगतना पड़े। इस में समाधी से इच्छाओं पर काबू पाया जा सकता है।

थैरावाद में सम्यक कर्म पर ज़ोर दिया जाता है। कोई हिंसा नहीं, कोई असत्य बात नहीं, कोई चोरी नहीं, कोई नशा नहीं, यह उन के मौलिक सिद्धॉ।त हैं। समाधी से ही मन शॉूंत होता है और हानिकारक प्रवृतियों से बचा जा सकता है। प्रज्ञा के लिये थेरावाद में अभिधम्मा का अध्ययन किया जाता है।

महायान में शून्यता की कल्पना की गई है कि सभी वस्तुओं को अन्ततः शून्य में सम्माहित होना है। इस का अनुभव जीवन में भी किया जा सकता है। भिक्षु के लिये यह निर्देश हैं कि उसे ऊर्जावान, सचेत, सावधान रहना चाहिये। थोड़ा असंतोष, थोड़ा लगाव भी होना चाहिये ताकि वह बुद्धता ग्रहण कर सके। और सत्य मार्ग पर रह कर निर्वाण प्राप्त कर सके।

 

पवित्र स्थान

बौद्ध मत में हर वह वस्तु पवित्र है जो बुद्ध के संसर्ग में आई है। इन में स्तूप षामिल हैं। जहाँ बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया, वहाँ का वातावरण भी पवित्र है। जिन भिक्षुओं ने धर्म का प्रचार जहाँ रह कर किया, वह स्थान भी पवित्र हैं। भारत में स्तूप को नक्काशी द्वारा सुसज्जित किया गया है। इन स्थानों पर भेंट देने का रिवाज भी हिन्दू मत के समान है।

स्तूप का आकार भारत में गोलाकार है। तिब्बत में इस लम्बवत किया गया है ताकि श्रद्धाँजति अर्पित करने का स्थान हो। चीन, कोरया, जापान में इन में छतरी का भी प्रयोग है और यह पैगोडा का रूप धारण कर लेते हैं। जावा में बोरोबुदर में स्तूप का कई आरोही गैलरी के रूप में बनाया गया है। इस में एक युवा तीर्थयात्री सुधाना की ज्ञानोद्दीप्ति को दर्शाया गया है।शिखर पर अनेक छोटे छोटे स्तूप हैं जिन में बुद्ध की प्रतिमा है। बीच में स्तूप है जो खाली है और अन्ततः शून्यता को इंगित करता है।

भारत में हिन्दू धर्म के समान मंदिर बनाये गये हैं। कई मंदिर कन्द्राओं में बनाये गये हैं। बुद्ध की प्रतिमा गर्भगृह के समान है तथा सामने बैठ कर पूजा करने का स्थान है। इस की नकल अन्य देशों में भी की गई है। उदाहरणतया श्री लंका में काण्डी में दंत मंदिर है जहॉं महात्मा बुद्ध का दॉंत होने की बात कही जाती है। बंकाक में पन्ना मंदिर है। तिब्बत में लहासा में जोखंग मंदिर में बुद्ध की प्राचीन प्रतिमा है जो सब से पुरानी बताई जाती है। जापान में नारा में मंदिर है जो बौद्ध एवं शिण्टो धर्म का मिश्रण है।

बुद्ध एवं बोधिस्तव की प्रतिमा की परिकमा में उन के जीवन के बारे में सोच का एवं उन का सार कर उन के चरणचिन्हों पर चलने की प्रेरणा प्राप्त की जाती है।

भारत में यह विश्वास किया जाता है कि सभी बोधिसत्व बोधगया में आ कर ही गति प्राप्त करते हैं। उन का मानना है कि बोधी वृक्ष के नीचे पृथ्वी के केन्द्र तक का मंदिर है तथा यह उस का शिखर है। इसी प्रकार की धारणा तिब्बत में कैलाश पर्वत तथा चीन में वूतयी पर्वत के बारे में भी है। धारणा है कि पवित्र स्थान में बैठने से ध्यान केन्द्रित करने में सहायता मिलती है। महायान का मत है कि जहाँ पर भी ध्यान किया जाये वही स्थान चैत्य है। इन में कई बार महायान के ग्रन्थ को भी पूजा के योग्य माना जाता है। यह धारणा तिब्बत में तथा जापान में भी देखी जा सकती है।

उन स्थानों में कहाँ बुद्ध के अवशेष है, उन्हें शरीर काया कहा जाता है। अन्य स्थानों को धर्म काया।

 

पवित्र समय

जैसा कि अपेक्षित है, बौद्ध मत में पवित्र समय का गहण सम्बन्ध बुद्ध के जीवन से है। चूॅकि समय का महत्व बौद्ध मत में नहीं है अतः कई बौद्ध किसी समय के पवित्र होने की बात से बचते भी हैं। कुछ स्थानीय त्यौहार, जो दूसरे कारणों से मनाये जाते हैं, वह इन का भी हिस्सा बन जाते हैं।

बैसाख मास की पूर्णमासी को बुद्ध के जन्म, ज्ञानदीप्ति, मृत्यु के दिवस के रूप में विशेष रूप से श्री लंका में मनाया जाता है। तिब्बत में वर्ष के आरम्भिक मास में पूर्णमासी को यह त्यौहार मनाया जाता है। श्री लंका में काण्डी में, जहाँ बुद्ध का दाँत होना माना जाता हैे, जुलाई अगस्त में इस का जलूस निकाला जाता है। यह त्यौहार एक हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है।

थेरावाद में बुुद्ध के प्रथम प्रवचन का दिन, जो आठवे चन्द्र मास की पूर्णमाशी को आता है, को मनाया जाता है। तिब्बत में प्रति वर्ष कालचक्र नाम से त्यौहार मनाया जाता है। चीन तथा जापान में कमल सूत्र का वार्षिक उत्सव होता है। थेरावाद में तीसरे चन्द्र मास की पूर्णमासी को संघ का स्थापना दिवस मनाया जाता है। इन सभी देशों में वर्षा ऋतु में चतुर्मास मनाने की परम्परा है। यह समय मठवासियों के आत्मचिंतन का है। चतुर्मास की समाप्ति को जलूस इत्यादि के माघ्यम से मनाया जाता है।

नव वर्ष का त्यौहार केवल संदर्भ रूप से ही बौद्ध त्योहार है।

जापान में एक विशेष त्यौहार मृत त्यौहार है जो ओ बोन कहलाता है। यह प्रथम शिष्य मौदगलगयान के अपनी माता को मृत्यु से बचाने के प्रयास का प्रतीक है।

बच्चों से सम्बन्धित संस्कार में गर्भधारण, जन्म, नामकरण, कनछेदन (बालिकाओं के लिये), केश बन्धन (बालकों के लिये) का महत्व है किन्तु इन का बौद्धमत से अधिक सम्बन्ध नहीं है। व्यस्क होने की रस्म में बालक को मठ में कुछ समय तक रहना होता है जिस के पश्चात वह तय करता है कि उसे मठवासी बनना है अथवा नहीं। संस्कार की यही स्थिति विवाह के बारे में भी है। बौद्ध भिक्षुओं को आशीरवाद देने बुलाया जाता है किन्तु अन्य रस्मो रिवाज स्थानीय ही रहते हैं।

मृत्यु के बारे में थोड़ी स्थिति अलग है। इस में बौद्ध भिक्षुओं तथा पुजारियों द्वारा ही रस्मो रिवाज पूरे किये जाते हैं। हर वर्ष मृत आत्माओं को श्रद्धाँजलि देने की भी परम्परा है। दक्षिण पूूर्व एषिया में मृत्यु के पश्चात कई दिन तक दान पुण्य की बात चलती रहती है।

बौद्ध मत में समय तथा ऋतु का इतना महत्व नहीं है क्योंकि समय तो कालचक्र है। व्यक्ति में जागृति का भाव कभी भी उत्पन्न हो सकता है। बुद्ध ने एक बार कहा था कि धर्म का ह्नास समय के साथ होता रहे गा। इसे टालने का ही प्रयास बौद्ध भ्ज्ञिखुओं द्वारा किया जाना है।

 

जीवन उपरान्त

बौद्ध मत में मृत्यु उपरान्त का वर्णन हिन्दु मत के अनुसार ही है। यह संसार है तथा इस में आवागमन निरन्तर अवस्था है। मनुष्य मृत्यु के पश्चात पुनः जन्म लेता है तथा यह उस के कर्मों के ऊपर निर्भर करता है कि पुनर्जन्म किस रूप में हो। यह जानवर के रूप में भी हो सकता है। बौद्ध धर्म में स्वर्ग तथा नरक की भी कल्पना है। नरक में फल भोगने के पष्चात तथा स्वर्ग में अपने गुण के कारण समय पूर्ण होने पर पुनर्जन्म होता है।

नरक में भी कई स्तर की कल्पना है जो मनुष्य द्वारा किये गये दुष्कर्म पर निर्भर करता है। सब से भ्यानक नरक अपने माता पिता की अथवा गुरू की हत्या के फलस्वरूप मिलता है।

परन्तु इस चक्र से मुक्ति पाई जा कती है। बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था जब उसे ज्ञान प्राप्त हुआ और उस की समस्त इच्छाओं का अन्त हो गया। उस से अगले पड़ाव पर उसे पूर्व जन्मों का ज्ञान हुआ। इस के पश्चात दूसरों के जन्म तथा पुनर्जन्म का ज्ञान हुआ। अन्त में कई दशक के बाद उस का महापरिनिर्वाण हुआ जब उस के समस्त कर्म का फल समाप्त हो गया तथा पुर्नजन्म की आवश्यकता नहीं रही।

ऐसा ही लक्ष्य हर मनुष्य का होना चाहिये कि वह सत्कर्म करे ताकि इस जन्म मरण का चक्र समाप्त हो जाये। अष्ट आर्य मार्ग पर चल कर ही इसे प्राप्त किया जा सकता है।

परलोक के बारे में चीन, जापान तथा तिब्बत में पवित्र जगत के बारे में कहा गया है। यह अमिताभ बुद्ध का स्थान है। अमिताभ को चीन में अमित्वो तथा जापान  में अमिदा कहा जाता है। इस में हिन्दु धर्म की तरह यह कहा गया कि अंतिम समय में जिस देवता का ध्यान किया जाये, वैसा ही फल मिलता है। जापान में इस की जोदोशू तथा जादो शिनशू सम्प्रदाय में विशेष रूप से यह मान्यता है। जापान में मृत्यु के निकट होने के समय कविता बनाने का भी रिवाज है।

तिब्बत में मृत्यु पुस्तिका है जिस में मृत्यु के सम्बन्ध में कहा गया है। मृत्यु के बाद 49 दिनों तक इस का पाठ किया जाता है, कुछ दिन तक मृत के शरीर के समक्ष तथा बाद में उस केे चित्र के समक्ष। 49 दिन का संदर्भ इस लिये है कि माना जाता है कि 49 दिन में अगले जन्म के बारे में निर्णय लिया जाता है। इन पुस्तकं में बुद्ध के विभिन्न रूपों का वर्णन है। इस अवधि में मृत के रिश्तेदारों को भी उस के न होने के बारे में धैर्य एवं सन्तावना की प्राप्ति होती है। गगगगगग

 

बौद्ध मत तथा समाज

बौद्ध धर्म के अनुसार समाज में चार वर्ग हैं - भिक्षु, भिक्षुणी, साधारण पुरुष तथा साधारण स्त्री। भिक्षु तथा भिक्षुणी संसार से विरक्त हो कर निर्वाण का प्रयास करते हैं। गृहस्थ दूसरे कार्य करते हैं जिन में खेती करना, व्यापार करना, धन कमाना शामिल है। वह भिक्षु समाज को उन के कार्य के लिय आवश्यक सहायता देते हैं। आम तौर पर भिक्षु नगर नगर घूमते हुये धर्म का प्रचार करते थे। वर्षा ऋतु में उन्हें एक स्थान पर रहना पड़ता था जिस से विहार की स्थापना हुई। यह विहार कालान्तर में धार्मिक प्रचन के साथ अन्य शिक्षा भी देने लगे जिस में औषधियों, कला तथा साहित्य इत्यादि का भी समावेश हुआ। इन विहारों में कई काफी उच्च स्तर के शिक्षा केन्द्र थे।

बौद्ध मत में धर्मराजा की कल्ना की गई है जिस की परम्परा अशोक से आरम्भ हुई जिस में धर्म का राज्य स्थापत करने का निर्णय लिया। अन्य राजाओं ने भी इस प्रवृति को दक्षिणपूर्व एशिया में अपना लिया। तिब्बत में पाँचवें दलाई लामा ने प्रशासनिक तथा धार्मिक दोनों का दायित्व ले लिया और यह प्रथा चली आ रही है। साम्यवादी चीन ने इस में व्यवधान डाला तथा चौदहवे दलाई लामा को तिब्बत छोड़ा पड़ा। वह अभी भारत में हैं। चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति के समय विहारों का काफी नुकसान उठाना पड़ा परन्तु अब पुनः उन का विस्तार हो रहा है।

म्यानमार में यू नू ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात बौद्ध समाजवाद की कल्पना की थी। सैनिक विद्रोह के पश्चात उन्हें 1962 में म्यानमार छोड़ना पड़ा। 1980 में वह म्यानमार लौटे तथा भिक्षु बन कर शेष जीवन व्यतीत किया।

बौद्ध समाज में दोनों पक्ष एक दूसरे के पूरक हैं। भिक्षु धर्म के बारे में प्रचार करते हैं। गृहस्थ उन्हें दान देकर पुण्य कमाते हैं तथा अपना अगला जन्म संवारते हैं।

 

(उपरोक्त विवरण मैकोम डेविड एगल के लेख पर आधारित है। यह लेख माईकल डूगन की सम्पादकता में प्रकाशित पुस्तक ईस्टर्न रिलीजन्स में शामिल है जिस का प्रकाशन डुनकन बेरड पब्लिकेशन द्वारा किया गया है। चीनी अथवा जापानी एवं तिब्बती भाषा का ज्ञान न होने के कारण नामों में त्रुटि हो सकती है। मूल पाठ एक सौ पृष्ठ से अधिक है)

 

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