प्रजातन्त्र की यात्रा
- kewal sethi
- Jan 22, 2024
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प्रजातन्त्र की यात्रा
यात्रा ही है नाम जीवन का हर जन के साथ है चलना
विराम कहॉं है जीवन में हर क्षण नई स्थिति में बदलना
प्रजातन्त्र भी नहीं रहा अछूता परिवर्तन के चक्कर मे
आईये देखें इस के रूप अनेकों समय के साथ चलते
सन सन्तालीस में आई आज़ादी, सब ने था यह जाना
पर साथ में प्रजातन्त्र भी लाई, किस ने इसे पहचाना
हर पॉंच साल में यह नया त्यौहार मनाया जाये गा
बिना दाम के लोगों को तमाशा दिखाया जाये गा
सन बावन में आगाज़ हुआ यह एक अनोखा सा पर्व
बैण्ड बाजे सहित आये गॉंवों से लोग था उन्हें गर्व
सरकार ने दिया है मौका क्यों न जश्न हम मनायें
पर्ची डाली फिर बैंलो के बक्से में मन मे थे हरषाय
क्या मतलब इस नाटक का वह कुछ समझ न पाये
पर्ची डालें बक्से में उस में से हाकिम निकल आये।
जादू के तमाशे थे देखे बचपन में बैठ फर्श पर नीचे
लड़की गायब होती सामने से, आ जाये अपने पीछे
चलो तमाशा तो कुछ हुआ, कुछ आया तो आनन्द
पॉंच साल पर फिर आयें गे, ले कर टूटी हुई कमंद
बारह साल में ही आता वो था महा कुम्भ का मेला
लाखों इकठ्ठे होते होता इक जा पर खूब रेलम पेला
भूलना मत, अब पॉंच साल में हो गा फिर त्यौहार
इस को मत भूलना, हो कर के आना तुम तैयार
कुछ दिन पहले से ही छा गई इस की रंगीन बहार
गाना बजाना तो खूब हुआ, था प्रचार भी धुवॉं धार
लेकिन कुछ बदला बदला सा था कुछ बात अनूठी
एक बकसा ही रह गया सिर्फ, बाकी की हुई छुट्टी
कागज़ थमा दिया हाथ में और दे दी मौहर हाथ में
लगा दो जिस पर चाहो अैर डाल दो इस बाक्स में
अपने आप बकसा चुन ले गा कौन बन गा राजा
पॉंच साल बाद फिर आप को दें गे वैसा ही मौका
समय बदला, पेटी मोहर का अब नहीं रहा ज़माना
नई्र तकनालोजी ने यहॉं पर भी था अपना रंग दिखाना
बक्सा एक आया और साथ में अपने कई्र निशान लाया
वोटर का काम बस अब यही कि कोई एक बटन दबाना
बक्सा खुद तय कर ले गा किस को है विजयी बनाना
दल दल वाले तो घूमते हैं अपने निशान को बतलाने
कोई भी वोटर की मन के अन्दर की बात न जाने
जैसे जैसे समय बीता त्यौहार और रंगीन होता गया
जलसे जलूस झएडे झण्डियॉं से बाज़ार सजने लगा
काफी लोगों को इसी बहाने से अच्छा रोज़गार मिला
खाली बैठे ठालों को भी कुछ करने का काम मिला
पर इस यात्रा में एक बात में बदलाव नहीं आया
फ्रीबीज ने अपना उच्च रुतबा कभी नहीं है गंवाया
शराब कबाब तो सदैव से ही पकड़े रहे अपना स्थान
और भी कई लालचों ने घेर लिया है सारा मैदान
कोई तो मुफ्त में साईकल दिलाने की बात बताता है
दूसरा उस के एक कदम आगे लैप टाप दिखलाता है
मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी के दिखलाता हैं खवाब
कोई घर बैठे रकम भिजवाने का करता है अहलान
कहीं बसों में मुफ्त की सवारी की होती है बात
कहीं बताते हैं प्रत्याशी हों गे पुराने कर्ज़ सब माफ
सब कहते हैं बटन दबाने से शासन बदल जाता है
पर अपने को तो कोई भी फरक नज़र नहीं आता है
याद आती है हमें मंथरा दासी की बह बात पुरानी
जब उस ने कहा था कि कोउ नृप भये हमें का हानि
पर प्रजातन्त्र में यह थोड़ी सी उलटी बात पड़ती है
हानि ही हानि है, चाहे जिस को गोटी फिट पड़ती है
अपने को तो करना है संघर्ष सदैव जीने के लिये
त्यौहार तो आते जाते हैं बस अपनों ही के लिये
चुनाव त्यौहार भी मना लें गे खुद को शासक कह कर
कुर्सी तो जिन की है, उन्हीं की रहे गी दासी बन कर
कहें कक्कू कवि, मची है धूम यात्रा की चारों तरफ
तुम भी तो अपनी कह लो रह जाये न कोई कसर
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