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उपनिषदों में ब्रह्म, पुरुष तथा आत्मा पर विचार -3

उपनिषदों में ब्रह्म, पुरुष तथा आत्मा पर विचार

(गतांश से आगे)

अब ब्रह्म तथा आत्मा के बारे में उपनिषदवार विस्तारपूर्वक बात की जा सकती है।


मुण्डक उपनिषद

पुरुष

उपनिषद में पुरुष का वर्णन कई बार आया है। यह अनादि, अनन्त, अपरिवर्तनीय, कर्ता तथा दैवी है। इसे सूर्य द्वार से गुज़र कर ही प्राप्त किया जा सकता है। इसे जानने के लिये ब्रह्म को जानना आवश्यक है। यह ही ब्रह्म का कारण है।


ब्रह्म

ज्ञान का अंतिम लक्ष्य ब्रह्म ही है। जब व्यक्ति इसे जान लेता है तो वह स्वयं ही ब्रह्म हो जाता है। इस का जानने के लिये आत्मा का जानना आवश्यक है। तीर कमान की समानता दिखाते हुये कहा गया है .

प्र्णव धनु शरो आत्मा

ब्रह्म तलाकं उच्चयते

ब्रह्म ही जगत का आधार है। उपनिषद में ब्रह्म के दो रूप बताये गये हैं . परा तथा अपरा। पर यह इन के बारे में ज्ञान के दो रूप है।

द्वे विद्यये इति ह मा यद् ब्रह्मविदो

वेदान्ती परा चैवापरा च।

आत्मा

पुरुष तथा आत्मा को समानार्थी बताया गया है। आत्मा को जानने से ही ब्रह्म को जाना जा सकता है। आत्मा अपने को उसे ज्ञात होती है जो इसे जानना चाहता है। इस प्रकार वह बाहरी भी है और भीतर भी।


कठोपनिषद

ब्रह्म

कठोपनिषद में ब्रह्म को ओम के समतुल्य माना ग्या है। ब्रह्म को जानना ही मनुष्य के जीवन का अंतिम लक्ष्य है। किन्तु ब्रह्म को केवल आत्मा के ज्ञान के माध्यम से ही जाना जा सकता है।


आत्मा

आत्मा को जानना ही उपनिषद का मुख्य बिन्दु है। आत्मा सूक्षम से सूक्षम तथा बहृत से बहृत है। यह मनुष्य के हृदय में स्थित है। केवल वह जिस ने अपनी सब इच्छाओं को जीत लिया है और दुख रहित हो गया है आत्मा को पहचान सकता है।


श्वेतश्वेतर उपनिषद

ब्रह्म

उपनिषद का प्रथम वाक्य है . ब्रह्मवादिनो वेदान्ती किमकारणम् ब्रह्म। इस का अर्थ यह लगाया गया है कि ब्रह्म का क्या कारण है अथवा कारण क्या है . ब्रह्म। पर आगे चल कर बताया ग्या है कि ईश्वर ही ब्रह्म को चलायमान करता है अर्थात वह इस का कारण है। परन्तु ब्रह्म को त्रेयम के रूप में भी विवरण दिया गया है। इस त्रेयम को जानना ही मोक्ष की प्राप्ति है। आत्मा तथा ब्रह्म का सम्बन्ध भी रहस्यमय है। बह्म को पूरी सृष्टि के रूप में देखा गया है जिस में दो प्रकार की आत्मा हैं . एक उच्च और एक निम्न। दूसरी ओर आत्मा को सब का कारण भी बताया गया है जिस में ब्रह्म भी शामिल है। ब्रह्म के त्रेयम होने का उदाहरण सांख्य में देखा जा सकता है जिस में प्रकृति तथा पुरुष का विवरण दिया गया है। पुरुष प्रत्येक शरीर में भी है तथा सर्वोच्च सत्ता भी है।

सर्वंव्यापिनमात्माानं क्षीरे सपर्रिरिवार्षितम्।

आत्ममविद्यातपोमूलं वद् बह्मोपनिषत् परम्।।

दूध में स्थित घी की भाँति सर्वत्र परिपूर्ण आत्मा विद्या तथा तप से प्राप्त आत्मा ही उपनिषदों में बताया गया ब्रह्म है।


उपनिषद में त्रेयम के तीसरे अंश को शक्ति भी कहा गया है। इसी के साथ प्रधान का भी ज़िकर आता है जो सम्भवतः शक्ति का ही दूसरा नाम है। इसी को सम्भवतः शंकर ने माया का नाम दिया है। यह उल्लेखनीय है कि प्रकृति, शक्ति, माया तीनों स्त्रील्रिग में ही आते हैं। प्रधान को भाषा की दृष्टि से नपुसलिंग माना गया है।


आत्मा

उपनिाष्द में आत्मा के दो रूप बताये गये हैं। एक जो अंधकार में है और दूसरे को प्रेरतृ कहा गया है। अज्ञान में स्थिति आत्मा ब्रह्म के चक्कर में घूमती रहती है जब तक वह अपने पवित्र रूप को पहचान नहीं लेती।

एको वक्षी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा यः करोति।

तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाष्वतं नेतरेषाम्।।

आत्मा को देव भी कहा गया है जो हर हृदय में स्थित रहती है।

देवः सर्वभूतेषु गुदाः व्याप्ति सर्वाभूतानामात्मा।

यह दैविक आत्मा ही जगत को उत्पन्न करने वाली, तथा पालन करने वाली एवं संहार करने वाली है।

आत्मा के दो रूप को इस श्लोक में भी देखा जा सकता है

द्वा सपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजातेे।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाक्ष्ज्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।

दो पक्षी एक पेड़ पर बैठे हैं। एक भोग करता है तथा दूसरा केवल साक्षी है।


केनोपनिषद

ब्रह्म

इस उपनिषद में दो भाग हैं।

खण्ड एक तथा दो में ब्रह्म को अवर्णनीय बताया है जो व्यक्त तथा अव्यक्त से परे है। वह ही सृष्टि का प्रथम कारण हैं।

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।


खण्ड तीन तथा चार में ब्रह्म को प्रकट होते हुये बताया गया है। उसे अग्नि तथा वायु को यह बताते हुये उद्धृत किया गया है कि वह बिना ब्रह्म की शक्ति के कुछ नहीं हैं। ब्रह्म का स्वरूप इन्द्र उमा की सहायता से पता करते हैं कि वह ही सब देवताओं की निहित शक्ति हैं।


आत्मा

इस उपनिषद में आत्मा के बारे में अधिक नहीं कहा गया है। केवल यह कि व्यक्ति आत्मा के माध्यम से ही वीर्य अर्थात शक्ति प्राप्त करता है।


मैत्री उपनिषद

इस उपनिषद में ज़ोर आत्मा पर है न कि ब्रह्म पर।

आत्मा

आत्मा के भी दो भेद बताये गये है। उच्च तथा निम्न। उच्च आत्मा केवल साक्षी रहती है। निम्न आत्मा को भूतात्मा भी कहा गया है। भूतात्मा ही कार्मिक परिणामों के कारण पुनर्जन्म लेती है। भूतात्मा तथा उच्च आत्मा का सम्बन्ध कमल पर पड़ी पानी की बूँद के समान है। वे एक भी हैं और अलग भी। इन के बारे में कहा गया है .

सत्यनृत्योपभोगारथाद द्वैतिभावो महात्माः।

सत्य तथा अनृत के अनुभव के कारण ही महान आत्मा दो भागों में विभक्त होती है।

एक प्रकार से दो भागों में विभक्त आत्मा दो पक्षियों के सादृश्य है जिन में एक केवल साक्षी है। पुरुष को इस उपनिषद में शुद्ध, पूत तथा शून्य कहा गया है।


दक्षिण में मैत्री उपनिषद का एक अन्य रूप चलता है जिस में आत्मा को अग्नि आहुति माना गया है।

ब्रह्म

ब्रह्म के बारे में दक्षिण रूप में केवल यह कहा गया है कि इस बारे में अन्य उपनिषदों में कहा गया है। परन्तु जैसे कि ऊपर कहा गया है, ज़ोर आत्मा पर ही है।


अन्य रूप में ब्रह्म को भी दो रूप में देखा गया है . मूर्त तथा अमूर्त। यह बात अन्य उपनिषदों से अलग है। मूर्त रूप का प्रचलन सम्भवतः तब हुआ जब मूतियाँ बनाने का रिवाज आरम्भ हुआ। वैसे अग्नि आहुति में गर्म किये गये बर्तन को भी मूर्त कहा गया था।


माण्डूक्य उपनिषद

यह एक संक्षिप्त 12 पैरा का गद्य में उपनिषद है। गौडपाद ने इस पर अपनी टीका लिखी थी। इस उपनिषद का केन्द्र बिन्दु है। आत्मा को के साथ तादात्मय बताया गया है। इसे तीन चरण अ, उ तथा म का संगम बताया गया है जो जागृत, स्वप्न तथा सुषप्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। ब्रह्म को चार पदों वाला बताया गया है। चौथा पद परे है। तथा यह ही शुद्ध चैतन्य है। यही सृष्टि का क्रेता, रक्षक एवं

संहारक है।


उपसंहार

इस प्रकार हम ने देखा कि आत्मा, पुरुष तथा ब्रह्म का स्वरूप प्रत्येक उपनिषद में अलग अलग है किन्तु इन का आपस में सम्बन्ध भी है और वह तीन होते हुये भी एक हैं। एक को दूसरे के माध्यम से ही जाना जा सकता है। और इन तीनो का समागम ओम में होता है।


(उपरोक्त विचारों का उद्गम स्थान Text and authority in the Older Upnishads लेखक Signe Cohen प्रकाशक brill, leiden, बोस्टन 2008)


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