अलविदा
आज महफिल में एक हादसे पर बात हो रही थी। उन का एक सदस्य कम हो गया था। माहौल थोड़ा अलग सा था। बात चीत का केन्द्र भी वही सदस्य था जिस के बारे में बात हो रही थी।
एक सदस्य कह रहे थे।
- ठीक है, तारीफ तो करना ही पड़े गी। आखिर इतने दिन का साथ था। बिछुड़ना तो हमेषा दुख ही देता है।
दूसरे ने कहा
- आदमी भला था। महफिल में बराबर आता था। षायद ही कभी नागा किया हो।
तीसरे ने कहा
- याद तो आये गा ही। हसी मज़ाक भी कर लेता था।
एक और बोले
- भाई, बात तो तुम ठीक कहते हो। प्यारे लाल के दम से कभी कभी दावत भी हो जाती थी।
एक और जो प्यारे लाल से इतने करीब नहीं थे, कहने लगे
- अरे, उस का साला दुबई में रहता है। वहॉं से खजूर भेज देता था। घर में कोई खाता नहीं था तो यहॉं ले आता था। उस में क्या बड़ी बात है।
- लाता तो था। नहीं तो कहीं और भी बॉंट सकता था गली मौहल्ले में।
- पर देखो, जब पिछली बार हम लोग डैलीगेषन ले कर सचिव से मिलने वाले थे, कैसे कन्नी काट गया था।
- क्या तुम से कुछ उधार लिया था जो इतना बिगड़ रहे हो।
- अरे वह पैसे का सवाल नहीं है। दस बीस रुपये की बात क्या है।
- खैर अब छोड़ो, वह चला गया है। देखना तुम्हारा पैसा भी आ जाये गा। आदमी तो सही था बोलने चालने में।
- क्यों दिलेरी तुम चुप क्यों हो। तुम्हारा तो उस के साथ खास उठना बैठना था।
दिलेरी ने भी अपनी चुप्पी तोड़ी।
- देखो भाई। जाना तो सब को है, क्या आगे, क्या पीछे।
- सही बात है, जाना तो है। इसी उम्मीद पर तो दुनिया कायम है।
- पर राम रतन नहीं जा पाये गा, वह तो पहले ही साठ का हो जाये गा।
- मेरा ख्याल है कि बुला कर उसे एक बार चाय तो पिला ही देना चाहिये।
- और साथ समोसा भी रहना चाहिये। - एक ने कहा
- मीठे का मौका भी बनता है
- पर वह आये गा क्या। अब उस का रुतबा बढ़ गया है। असिसटैण्ट हो गया है।
- वह हम दिलेरी पर छोउ़ते हैं। आप तो चन्दा करने की बात करो।
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