this poem was written in 1987. has the situation worsened or improved since that year? is the poem still relevant. let us know.
अधूरे गीत
पूछते मित्रवर मुझ से क्या है यह बात
अधूरे रहते गीत तुम्हारे नहीं बनती बात
हो रहा चारों ओर इतना, छोड़ता मन पर छाप
पर शब्दों में ढल न पाता है मन का झंझावात
उठती हैं कई तरंगें होती है हिल्लौर
पर हाथ रुक रुक जाता, नहीं चलता इस पर ज़ोर
मरज़ हो चुका लाइलाज हद से बढ़ गई बीमारी
छोड़ो दवा दारु अब, करो मरघट की तैयारी
दिल कहता लिखो कह दो बात अपने मन की
मस्तिष्क कहता रुको रुको लोग कहें गे सनकी
मन कहता आवाज़ उठाओ राज़ यह सारे खोलो
मस्तिष्क कहता बस्ती बहरों की मत कुछ बोलो
हो रही है चारों इतराफ़ लूट मार है भारी
इन स्फैदपोशों की दिखला दो यह अय्यारी
मरीज़ चला गया कोमा में यह लौट न पाये गा
चाहे कल मरे या परसों या सालों कष्ट पाये गा
नहीं उम्मीद कुछ अब मत समय बरबाद करो
हो सके तो कर प्रार्थना ईश्वर को तुम याद करो
शायद गीता में दिया गया वचन वह निभाये
ले कर अवतार फिर भारत की आन बचाये
(भोपाल 14.2.87)
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